Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


118. असमंजस : वैशाली की नगरवधू

बहुत भोर में वधू की निद्रा , तंद्रा या मूर्छा भंग हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी । उसने अचकचाकर रात की अकल्पनीय घटना पर विचार किया , फिर उसने भयभीत दृष्टि कक्ष में घुमाई। कोई भी अप्रिय- असाधारण बात नहीं थी । रात में देखे हुए छायापुरुष का वहां कोई चिह्न भी न था । उसकी दृष्टि सब ओर से हटकर मृदुल पुष्पशय्या पर सोते हुए सेट्ठिपुत्र पर गई, उसे गाढ़ निद्रा में सोता देख वह आश्वस्त हुई । उसने अपने वस्त्र ठीक किए, कक्ष के एक गवाक्ष से झांककर देखा , उषा का उदय हो रहा था । वह डरती - डरती सेट्टिपुत्र की शय्या के निकट गई। जब उसे भली- भांति विदित हो गया कि वह प्रगाढ़ निद्रा में सो रहा है, तो आंख भरकर पति को देखती रही। उसके सौन्दर्य पर वह मोहित हो गई , उसकी सुख निद्रा से भय की रेखाएं दूर हो गईं। वह वहां से हटकर गवाक्ष के निकट बड़े - से मुकुर के सामने आ खड़ी हुई। पुष्पिता लता के समान अपनी ही शोभा पर मन - ही - मन वह गर्वित हुई । उसने एक बार शय्या पर सोते हुए पति के सुकुमार शोभा के खान अंग पर दृष्टि डाली , एक मधुर उज्ज्वल हास्य रेखा उसके होठों में फैल गई । इसी हास्य -रेखा से उसकी उस भयानक मधुरात्रि का सब लेखा -जोखा समाप्त हो गया । वह शांत , स्निग्ध और शुभ दृष्टि से कक्ष की बहुमूल्य सजावट को देखने लगी । इसी समय दासी ने द्वार पर आघात किया , वधू ने धीरे से आकर द्वार खोल दिया । वधू को मुस्कराता तथा सेट्टिपुत्र को सोता देख दासी ने मृद - हास्य हंसकर वधू को बाहर आने का संकेत किया । बाहर आने पर स्त्रियों के झुरमुट ने उसे घेर लिया । सबके मुंह पर औत्सुक्य , घबराहट और चिन्ता की रेखाएं थीं , सभी ने एक - दूसरे से आंखों में ही कुछ पूछा ; सभी ने वधू की भाव - भंगिमा से समझा , कि रात की विभीषिका से वधू सर्वथा अज्ञात प्रतीत होती है । इसी समय सेट्ठि कृतपुण्य हा पुत्र , हा पुत्र करता हुआ वहां आया और पुत्र के शयनकक्ष में घुस गया । वहां पुत्र को सुख से सोते हुए और वधू को स्वाभाविक देख वह हर्षोन्माद से नाच उठा । प्रथम संकेत से और फिर खुलकर अब रात की बातें होने लगीं । जिस -जिसकी मूर्छा भंग होती गई, उठकर वहीं एकत्र होने लगा । प्रश्न यह था कि वह छाया - मूर्ति थी क्या ? वह वहां वास्तव में आई भी थी , या भ्रम या स्वप्न था । यदि वह आई थी तो गई कहां ? सारा ही घर प्रथम फुसफुसाहट और फिर कोलाहल से भर गया । उस कोलाहल को सुनकर सेट्ठिपुत्र की नींद भी खुल गई । वह मद्यपों- जैसे भारी - भारी डग भरता हुआ , अपरिचितों की भांति आंखें फाड़ - फाड़कर इधर उधर देखता वहां आया । कृतपुण्य पुत्र को देखकर दोनों हाथ फैलाकर उसकी ओर दौड़ा और उसका आलिंगन करके कहा - “ पुत्र, क्या तूने भी रात को कोई विभीषिका देखी ? ”

सेट्ठिपुत्र ने विचित्र दृष्टि से सेट्ठि की और देखा , तनिक मुस्कराया। ब्राह्मण पुरोहित ने कहा - “ गृहपति , वह छायापुरुष वास्तव में एक दु: स्वप्न था , मैं अभी पुरश्चरण करता हूं तथा अथर्व- पाठ करके उसकी शान्ति करता हूं। तुम पुत्र और वधू को अधिक असुविधा में मत डालो। ”

सेट्टि ने बहुत ऊंच- नीच दिन देखे थे। उसने भी जब देखा कि घर में सब- कुछ ठीक ठाक है, तो कुछ कहना - सुनना ठीक नहीं समझा , वह पुत्र और वधू के अंग - संस्कार, स्नान आदि की सुविधा देने के विचार से अपने कक्ष में चला गया ।

पीठमर्दकों , अवमर्दकों और सेवकों द्वारा सेवित स्नान - वसन - भूषण से सज्जित सेट्टिपुत्र जब प्रासाद के बाहर अपने कक्ष में आया , तब सब वयस्कों ने उसका सस्मित प्रीति सम्मोदन किया । कुछ ने संकेत से रात्रि का हालचाल पूछा। उनमें से जो रात की विभीषिका से अवगत थे, उन्होंने संकेत से सेट्टिपुत्र से रात की बात पूछने से निषेध किया । सेट्टिपुत्र ने केवल मन्द मुस्कान ही से मित्रों के प्रश्नों का उत्तर दिया , परन्तु उसकी दृष्टि में कुछ विचित्रता सभी ने लक्ष्य की ।

एक ने कहा - “ मित्र , क्या इतना आसव ढाल लिया ? ”

दूसरे ने कहा - “ नहीं - नहीं रे, जागरण का प्रभाव है। कह मित्र , सुख से रात बीती ? ”

अब सेट्टिपुत्र ने मुंह खोला, उसने कहा - “ वड़वाश्व । ”

यह शब्द सुनकर अब समुपस्थित चौंक उठे । बिल्कुल अपरिचित स्वर था , उसका घोष भी अमानुष था , जैसे सुदूर पर्वत - श्रृंगों को चीरकर कोई ध्वनि आई हो । मित्रगण सेट्टिपुत्र के मुंह की ओर देखने लगे ।

उसने एक बार फिर उसी भांति वड़वाश्व कहा और उठ खड़ा हुआ । उसकी रुखाई और चेष्टा ऐसी थी , जैसे वह किसी को नहीं पहचानता हो , अथवा वह उन सबकी उपस्थिति ही से अज्ञात हो । सभी एक - दूसरे के मुंह की ओर देखने लगे, पर सेट्ठिपुत्र उठकर कक्ष से बाहर चल दिया । दो - एक पाश्र्वद पीछे दौड़े । उसके चलने का ढब भी निराला था । पाश्र्वदों ने समझा कि सेट्रिपत्र ने बहत मद्य ढाल ली है , इसी से पैर डगमगा रहे हैं । वह कहीं गिर न जाए, इसी से एक ने उसे थाम लिया ! उसे संकेत से निवारण करके उसने उसी स्वर में फिर कहा - वड़वाश्व ।

इधर जब से छायापुरुष की विभीषिका फैली थी तथा भ्रमण- काल में एक बार छायापुरुष ने उसे छू लिया था ; तब सेट्टि कुमार का वड़वाश्व पर वायुसेवनार्थ भ्रमण रोक लिया गया था । आज अकस्मात् ही अतर्क्स रीति से वड़वाश्व की इच्छा इस आग्रह से व्यक्त करने पर सेवक विमूढ़ हो गया । एक बात और थी , सेट्ठिपुत्र में पूर्व का मार्दव -विनय - शील संकोच न था , एक अभूतपूर्व दबंगपन और दुर्धर्ष वेग उसकी वासना - शक्ति का उसके नेत्रों से प्रवाहित हो रहा था । सेवक उस आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका, वह अश्व लाने को दौड़ गया । दूसरा सेवक भयभीत होकर गृहपति को सूचित करने दौड़ गया । गृहपति सेट्ठि दौड़ा आया , उसने पुत्र को भ्रमण के लिए जाने का निषेध किया , पर सेट्ठिपुत्र ने मुस्कराकर गृहपति की ओर देखा । उस विलक्षण दृष्टि से सेट्टि घबरा गया । वह सोचने लगा - क्या मेरा पुत्र उन्मत्त हो गया है ? यह कैसी दृष्टि है ? इतने ही में सेट्ठिपुत्र पिता की उपस्थिति की अवहेलना करके अश्व की ओर चल दिया । सेवक अश्व ले आया था , एक अभूतपूर्व लाघव से सेट्टिपुत्र अश्व पर चढ़ गया और द्रुत गति से उसने अश्व छोड़ दिया ।

ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ था । पुत्र का यह परिवर्तन कैसा है ? क्या उसने रात अधिक मद्य पी है ? या कोई और बात है ? छायापुरुष की विभीषिका मन में होते हुए भी किसी ने भी यह नहीं सोचा कि इस घटना से वह छाया भी किसी भांति सम्बन्धित है ।

परन्तु सहसखियों से सेट्टिपुत्रवधू ने इस भयानक छाया का शयनकक्ष में आना वर्णित किया। सहसखियां सहम गईं । उन्होंने कहा - “ तब यह स्वप्न नहीं , सत्य है, वह छायामूर्ति हमारे सामने ही शयन - कक्ष में गई थी , ” परन्तु फिर उसका क्या हुआ ? वह कहां गई ? इसका कोई उत्तर न दे सका। वधू ने लजाते हुए कहा कि वह उसे देखते ही मूर्छित हो गई थी और रात भर वह मूर्छित ही भूमि पर पड़ी रही । तब सब स्त्रियां तथा सेट्टिनी भी चिन्ता से व्याकुल हो गईं । प्रासाद में सभी कोई मूर्छित हो गए थे और सभी रात्रि भर माया - मूर्च्छित रहे यह तो अद्भुत बात है । इसी समय सेट्टि कृतपुण्य ने भीतर आकर पत्नी से एकान्त में कहा - “ कह नहीं सकता क्या बात है, पर पुत्र में बड़ा अन्तर पाता हूं । क्या उसने रात बहुत मद्य पी थी ? ”सेट्टिनी ने शयन - कक्ष का जो विवरण वधू से सुना वह सेट्टि को सुना दिया । सुनकर सेट्ठि बहुत भयभीत हुआ । उसने कहा - “ आर्य वर्षकार को सूचना देनी होगी, मैं अभी नन्दन साहु को बुलाता हूं। ”

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